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उत्तराखंड में जवाबदेही का संकट, 21 साल में 11 मुख्यमंत्री, राजनीतिक अस्थिरता की कहानी करता है बयान

देहरादून। उत्तराखंड एक राज्य के रूप में नौ नवंबर को 22वें साल में प्रवेश कर गया है। इस उपलक्ष्य में सप्ताह भर चले समारोह संपन्न होने के साथ ही कुछ सवाल भी छोड़ गए हैं। व्यक्ति हो या संस्था, इस उम्र में ऊंचे लक्ष्यों को तेजी से दौड़ कर लपक लेने की अपेक्षा की जाती है। यह उम्र ही ऐसी है, जिसमें ऊर्जा एवं आकांक्षा शिखर पर होती है। उपलब्धियां प्राप्त करने का इससे बेहतर पड़ाव जीवन में नहीं आता है। यह संयोग ही है कि युवा उत्तराखंड में सरकार की कमान भी युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के हाथों में है।

चुनाव के मुहाने पर खड़े राज्य में गत नौ नवंबर को स्थापना दिवस समारोह धूमधाम से मनाया गया। भाजपा सरकार ने इस अवसर का फायदा कल्याणकारी व लोकप्रिय घोषणाओं को करने में उठाया तो कांग्रेस ने पूरी ताकत भाजपा सरकार से पांच सालों का हिसाब मांगने में झोंक दी। प्रमुख विपक्षी दल 21 सालों का हिसाब करता तो यह राज्य के हित में ईमानदार पहल मानी जाती और इसमें आमजन भी सहभाग कर सकता था।

राज्य गठन की 21वीं वर्षगांठ पर, जिस तरह के मुद्दों पर आधारित ईमानदार विमर्श की अपेक्षा की जा रही थी, वह राजनीतिक गहमा-गहमी व वोटों की राजनीति में कहीं खो गया। उत्तराखंड को बनाने में आमजन की सीधी सहभागिता रही, इसमें हर वर्ग का संघर्ष रहा, लेकिन जब राज्य के बारे में सोचने व सरकारों के कार्यो के आकलन का मौका आया तो सभी सरकार से अपनी-अपनी मांगों को मनवाने में लग गए। ऐसा लग रहा है कि उत्तराखंड राज्य का गठन ही कम काम बेहतर पगार, अधिक पदोन्नति और ज्यादा सरकारी छुट्टियों, भर्तियों में अनियमितता व विभिन्न निर्माण कार्यो की गुणवत्ता में समझौता करने के लिए हुआ है। मानो विकास का मतलब विद्यालय व महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, अस्पतालों व मेडिकल कालेजों के ज्यादा से ज्यादा भवन बनाना भर है, न कि उनके बेहतर संचालन की व्यवस्था करना। हर साल सड़कें बनाना मकसद है, पर हर साल ये क्यों उखड़ रही हैं, इसकी चिंता न तो सरकारें करती हैं और न ही विपक्ष इस पर सवाल उठाता है। जाहिर है कि करोड़ों रुपये के निर्माण में लाभार्थी पक्ष-विपक्ष दोनों के अपने हैं। अब सवाल यह उठता है कि उस वर्षगांठ को मनाने का औचित्य ही क्या है जिसमें उपलब्धियों व असफलताओं की बैलेंस सीट ईमानदारी से न खंगाली जाए। अब लोग भी यह पूछने लगे हैं कि अलग राज्य बनने के बाद ऐसा क्या हुआ जो उत्तर प्रदेश में ही रहते तो नहीं हो पाता। अगर कई जमीनी मुद्दों को सत्ताधारी नहीं देखते हैं या छिपाते हैं तो इसके कारण समझ में आते हैं, लेकिन विपक्ष की खानापूर्ति तो चिंता का कारण बनती है। जाहिर है कि इन 21 सालों में जवाबदेह व्यवस्था नहीं बन पाई है। दोनों प्रमुख दलों ने प्रदेश को मुख्यमंत्री तो दिए, लेकिन जननेता नहीं। सत्ता के सिंहासन पर बारी-बारी से दल तो बदले, लेकिन तौर-तरीके नहीं। इन वर्षो में राज्य की राजधानी का मसला तक नहीं सुलझ पाया। आज राज्य के पास गैरसैंण में शीतकालीन राजधानी है व देहरादून में अस्थायी राजधानी। भावनाओं की कीमत पर जमीनी हकीकत से किनारा न किया गया होता तो 21 सालों में स्थायी राजधानी तो मिल ही गई होती। नौकरशाही का खामियाजा आमजन ने भुगता, लेकिन सत्ताधारी तो इसमें भी मुनाफा कमा गए। हर विफलता के लिए नौकरशाही को कोसने वाले सफेदपोश व्यक्तिगत स्तर पर लाभार्थी ही रहे हैं। जब उत्तर प्रदेश का विभाजन हुआ तो यह माना जाता रहा कि अब नवोदित उत्तराखंड राज्य की राजनीतिक संस्कृति भी अलग होगी, लेकिन यह हुआ नहीं। आज भी उत्तराखंड उत्तर प्रदेश की ही राजनीतिक विरासत ढो रहा है। बस बाहुबल की राजनीतिक संस्कृति से काफी हद तक निजात मिली है, बाकी सारी तिकड़म की राजनीति वहां भी है और यहां भी। मतदाताओं के सामने खड़ी समस्याओं के समाधान से अधिक उनकी भावनाओं के दोहन की फिक्र रही है। कर्मचारी-शिक्षक सबसे बड़ा वोट बैंक बन कर उभरा है। स्थिति यह है कि आर्थिक स्थिति कैसी भी हो कर्मचारी-शिक्षक यूनियनों के सामने सरकारें नतमस्तक होती रही हैं। यही वजह है कि 21 साल बाद भी आर्थिक-औद्योगिक प्रगति केंद्र की अपेक्षित मदद के बाद भी गति नहीं पकड़ पाई। विकास जो हो रहा है वह पूरी तरह से केंद्र के भरोसे। पीएम नरेन्द्र मोदी का उत्तराखंड के प्रति सकारात्मक रुख के कारण ढांचागत विकास पर तेजी से काम हो रहा है, पर सवाल है कि इतने सालों में प्रदेश इनका लाभ लेने की स्थिति में भी पहुंचा या नहीं। 21 साल में 11 मुख्यमंत्री, राजनीतिक अस्थिरता की कहानी भी बयान करता है।

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