पर्यटन

चंबा है कुदरत का अचंभा

आज भी जहां प्रकृति अपने पारंपरिक रूप में सौंदर्य बिखेरती है ऐसी जगह है चंबा। आधुनिकीकरण ने इस स्‍थान को समृद्ध किया है पर बदला नहीं है।

लोकगीतों में गुनगुनाता है चंबा

‘माये नी मेरिये शिमले दी राहें चंबा कितनी दूर। शिमले नी बसणा, कसौली नी बसणा, चंबे ता बसणा जरूर..।’ लोकगीतों में कुछ इसी तरह से पिरोया गया है हिमाचल प्रदेश के खूबसूरत इलाके चंबा को। फिल्मों में आपने इसकी खूबसूरती कई बार देखी होगी, लेकिन अनगिनत कुदरती सौगातों के साथ-साथ यहां मिलती है लोकरंग और ग्रामीण संस्कृति की नायाब झलक भी। कल-कल बहती रावी और साहल नदियों के बीच बसा है चंबा। गीतों में, कहावतों में इसका नाम कई बार आया है। फिल्म ‘महबूबा’ (1976) का गीत ‘पर्वत के पीछे चंबे दा गांव..’ जैसे गीत कानों में रस घोलते रहे हैं। कहते हैं ‘चंबा एक अचंभा है’, जहां अजूबों और चकित कर देने वाली चीजें हर तरफ पसरी हुई हैं।

बारिश के मौसम में आयें चंबा

आधुनिकता के रंगों में रंग जाने के बाद भी यहां लोकरंग जीवंत रूप में नजर आता है। घाटी में देवी-देवता आस्था का विषय ही नहीं हैं, बल्कि ये यहां की जीवनशैली में घुल-मिल गए हैं। प्राचीन मंदिरों और उत्सवों-परंपराओं को सहेजने की कला बखूबी जानते हैं यहां के सीधे-सरल लोग। हिमाचल प्रदेश की सीमा पर बसे होने के कारण चंबा में हिमाचल के साथ-साथ पंजाब, जम्मू और जनजातीय क्षेत्र की संस्कृति का भी प्रभाव दिखाई देता है। कहा तो यह भी जाता है कि जो एक बार चंबा गया, वह पूरा महीना यहां गुजार देना चाहता है। बारिश यानी मानसून में आप कुदरत के सजीले रंगों के साथ-साथ यहां की रंगा-रंग संस्कृति, उत्सवों-मेलों का लुत्फ भी उठा सकते हैं।

खजियार यहीं है ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ 

स्विट्जरलैंड की खूबसूरत पहाडि़यां, चारों तरफ हरियाली, नदियां और झीलें दुनिया भर में मशहूर हैं। स्विट्जरलैंड के राजदूत ने यहां की खूबसूरती से आकर्षित होकर 7 जुलाई, 1992 को खजियार को हिमाचल प्रदेश के ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ का नाम दे गए। यहां का मौसम, चीड़ और देवदार के ऊंचे-लंबे पेड़, हरियाली, पहाड़ और वादियां स्विट्जरलैंड का एहसास कराती हैं। हजारों साल पुराने इस हिल स्टेशन को खासकर खज्जी नाग मंदिर के लिए जाना जाता है। यहां नागदेव की पूजा होती है। गोल्फ शौकीनों के लिए जन्नत खजियार का आकर्षण चीड़ व देवदार के वृक्षों से ढकी झील है। झील के चारों ओर हरी-भरी मुलायम और आकर्षक घास इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा देती है। झील के बीच में टापूनुमा दो स्थान हैं। वैसे तो खजियार में तरह-तरह के रोमांचक खेलों का आयोजन किया जाता है, लेकिन गोल्फ के शौकीनों के लिए यह स्थान अधिक अनुकूल है।

डलहौजी यहीं हुआ टैगोर की ‘गीतांजलि’ का जन्म

अंग्रेजी शासन के समय सन 1854 में अस्तित्व में आया था चंबा स्थित यह पर्यटन स्थल। चंबा से यह 192 किमी दूर है। हिमाचल के कुछेक बेहद खूबसूरत पर्यटन स्थल में से एक है, जहां खूबसूरत कुदरती नजारों के बीच साहसिक पर्यटन का भी काफी स्कोप हैं। प्राचीन मंदिर, औपनिवेशिक इमारतें, माल रोड, चर्च आदि में से कुछ को यादगार विरासतों में शुमार कर दिया गया है। यह स्थान पांच पहाडि़यों पर बसा है। अंग्रेज अधिकारी लॉर्ड कर्जन ने चंबा के राजा की मदद से इसे पर्यटक स्थल के रूप में विकसित कराया था। लॉर्ड कर्जन खुद कभी डलहौजी नहीं आए। डलहौजी के साथ नेताजी सुभाष चंद्र बोस व लेखक एवं साहित्यकार रवींद्रनाथ टैगोर जैसी महान हस्तियों का नाम भी जुड़ा है। नेताजी एक बार बीमार होने पर स्वास्थ्य लाभ लेने के लिए करीब छह माह यहां रहे थे। वे जिस बावड़ी से पानी मंगाकर पीते थे, वह यहां गांधी चौक से करीब एक किलोमीटर दूर स्थित है। बावड़ी का नाम भी ‘सुभाष बावड़ी’ है। गांधी चौक के समीप स्थित कोठी में नेताजी अपने मित्र के पास ठहरते थे। आज भी नेताजी से जुड़ी टेबल, कुर्सी आदि चीजें यहां मौजूद हैं। कहते हैं रवींद्रनाथ टैगोर को अपने सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘गीतांजलि’ को लिखने की प्रेरणा यहीं मिली थी।

पांगी और चुराह घाटी का सौंदर्य

चंबा स्थित पांगी और चुराह घाटी वे स्थान हैं, जिन्हें कुदरत के हसीन नजारों के बीच साहसिक पर्यटन और ट्रैकिंग के लिए विकसित किया जा रहा है। पांगी घाटी की लोक संस्कृति, प्राचीन विधाओं और मान्यताओं से ओत-प्रोत है। यह घाटी मध्य हिमालय में स्थित है। इसकी ऊंचाई समुद्र तल से करीब आठ से 12 हजार फुट तक है। देवदार, कैल, चीड़ ठांगी, अखरोट, भुज, ऐश, चिलगोजा, जामुन इत्यादि के वृक्षों से पटे इस स्थान पर जाना किसी स्वर्गिक एहसास से कम नहीं। चुराह बागवानी के लिए मशहूर है। घाटी के लोग अधिकतर बागवानी व कृषि पर निर्भर हैं। यहां सेब की अच्छी पैदावार होती है। चुराह घाटी में मौजूद सतरूंडी व साच पास सैलानियों के लिए सबसे मनपसंद पर्यटन स्थल बने हुए हैं। इसकी वजह यहां पर मौजूद भारी मात्रा में बर्फ का होना है। बर्फ से लदे पहाड़ों को देखने के लिए देश के विभिन्न मैदानी राज्‍यों से हर दिन सैकड़ों की संख्या में पर्यटक यहां का रुख कर करते हैं। समुद्र तल से 14,500 फुट की ऊंचाई पर मौजूद साच पास पांगी घाटी को जिला मुख्यालय के साथ जोड़ने वाला सबसे कम दूरी वाला मार्ग है।

 

चंबा की कहानी

राजा साहिल बर्मन ने चंबा नगर की स्थापना की थी। पहले चंबा की राजधानी ब्रह्मपुर (भरमौर) हुआ करती थी। साहिल बर्मन ने बेटी चंपा के आग्रह पर चंबा को राजधानी बनाया। -उत्तर-पश्चिमी हिमालय के आंचल में बसा चंबा शताब्दियों तक सूर्यवंशी वर्मन शासकों का राज्‍य रहा है। यह स्‍थान दुर्गम पर्वतों के बीच बसा था संभवत: इसलिए आक्रमणकारियों के हमले से बचा रहा और यहां की समृद्ध कलात्मक धरोहरें भी सुरक्षित रह सकीं। मुगलकाल से पूर्व यहां के शासक कश्मीर के प्रभाव में रहे। भारत में कोलकाता के बाद सबसे पहले चंबा शहर में बिजली पहुंची थी। राजा भूरि सिंह ने 1910 में जलविद्युत स्थापना के द्वारा चंबा नगर को आलोकित किया।  राजा भूरि सिंह ने अपने शासनकाल में क्षितिमोहन सेन को हेडमास्टर नियुक्त किया था, जो बाद में शांति निकेतन के प्रमुख बने। कोटकला-संस्कृति में अव्वल प्रकृति ने चंबा को इतने संसाधन दिए हैं कि केवल इमारती लकड़ी से ही राज्‍य की अच्छी खासी आय हो जाती थी। आज भी हिमाचल में जलविद्युत परियोजनाओं से सबसे अधिक आर्थिक लाभ अर्जित करने में चंबा जिला अग्रणी है। कला-संस्कृति के मामले में चंबा सबसे समृद्ध जिला है और यहां के कुशल शिल्पियों ने सबसे अधिक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किए हैं।

मिंजर मेले की धूम 

जुलाई माह के अंतिम हफ्ते में यहां मनाया जाता है मिंजर मेला। मिंजर यानी मक्के, गेहूं या धान के फसलों की बालियां। 17वीं शताब्दी के मध्य चंबा के राजा पृथ्वी सिंह की नूरपुर के राजा पर जीत के साथ यह परंपरा शुरू हुई थी। प्रजा ने राजा का स्वागत मक्के के ऊपरी हिस्से में लगी मिंजर भेंटकर किया था। यह मेला एक सप्ताह तक चलता है। इसमें गीत-संगीत का समां बंधता है। मल्हार गाए जाते हैं। जुलूस निकलता है और कई रंगारंग उत्सव होते हैं। यह आयोजन आस्था के साथ-साथ सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल है। जब मुस्लिम परिवार मिंजर भगवान रघुनाथ को मिंजर अर्पित करता है, तभी यह विशाल आयोजन आरंभ होता है। कहते हैं कि चंबा के राजा पृथ्वी सिंह दिल्ली से कढ़ाई का काम करने वाले मिर्जा परिवार के कुछ लोगों को चंबा लाए थे। यह परिवार जरी-गोटे और सुंदर कलाकारी के काम में निपुण था। उन्होंने यहां आकर मिंजर पर जरी-गोटे, रेशम व सुनहरे धागे का काम शुरू किया। मिर्जा परिवार की आधुनिक पीढ़ी आज भी इस परंपरा को संजोए हुए है। एक मिंजर को तैयार करने में करीब 10 से 15 मिनट का समय लगता है।’

ये रूमाल, है कमाल

इस साल गणतंत्र दिवस के परेड में दुनिया ने देखा चंबा के कारीगरों के द्वारा तैयार किए गया रूमाल। हिमाचल प्रदेश की झांकी में चंबा रूमाल को दर्शाया गया था। 1965 में चंबा रूमाल बनाने वाली कारीगर महेश्वरी देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया और अब ऐसे कलाकारों की कमी नहीं, जो कई दिनों की कड़ी मेहनत के बाद इसे तैयार करते हैं। इसे तैयार करने में 10 दिन से दस माह तक लग जाते हैं। इसकी खास बात यह है कि यह दोनो तरफ से एक-सा नजर आता है और कढ़ाई की विषयवस्तु रासलीला, अष्टनायिका और आध्यात्मिक आख्यानों पर आधारित होती है। राजा उमेद सिंह (1748-1764) ने चंबा रूमाल बनाने वाले कारीगरों को संरक्षण दिया था। 1911 में हुए दिल्ली दरबार में चंबा के राजा भूरि सिंह ने ब्रिटेन के अधिकारियों को चंबा रूमाल की कलाकृतियां तोहफे में दी थीं। आज यह चंबा की पहचान है। संरक्षण के लिए इसे बौद्धिक संपदा अधिकार समझौता 2007 के तहत पंजीकृत किया गया है। रूमाल की कीमत गुणवत्ता पर निर्भर करती है। वर्तमान में इसकी कीमत 100 से 10 हजार रुपये तक है। अब तक चंबा रूमाल को जानी-मानी हस्तियों को ही भेंट किया गया है। जर्मनी व इंग्लैंड के संग्रहालयों में चंबा रूमाल मौजूद हैं।

चप्पल के लिए भी मशहूर

विरासत के तौर पर यहां की चप्पलें भी प्रसिद्ध हैं। अब ये ऑनलाइन भी मिलती हैं। रजवाड़ों के जमाने में चप्पलों को तैयार करने वाले कई महशूर कारीगर प्रसिद्ध थे। वे राजाओं को उनकी मांग के हिसाब से नई-नई तरह की चप्पलें तैयार कर उपहार में देते थे। चंबा के राजा अन्य रियासतों के राजाओं को भी डिमांड पर चप्पलें निर्यात करते थे। हालांकि समय के साथ इस परंपरागत पहचान को भी नुकसान हुआ है। कभी चप्पल के ऊपर कढ़ाई होती थी। रेशम और तिल्ले की यह कढ़ाई काफी खूबसूरत हुआ करती थी। अब यह कम हो गई है। कारीगरों ने अब लेदर पर कढ़ाई उकेरना शुरू किया है। उल्लेखनीय है कि विभिन्न प्रकार की चप्पलों की तुलना में चंबा चप्पल काफी सस्ती है। यह मशीन की बजाय हाथ से तैयार होती है। लेदर से बनने वाली चंबा चप्पल काफी समय तक चलती है। एक चप्पल की कीमत कम से कम 350 रुपये रखी गई है। रेशम व तिल्ला डिजाइन वाली चप्पलों की कीमत अमूमन 300 रुपये तक होती है।

भूरि सिंह संग्रहालय में विरासत के रंग

चंबा का भूरि सिंह संग्रहालय शहर और आसपास की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत से परिचय कराता है। संग्रहालय के प्रांगण में बुद्ध की मूर्ति स्थापित है। मुख्य भवन में संग्रहालय में चार गैलरियां हैं। दो धरातल पर हैं और दो पहली मंजिल पर। भूरि सिंह संग्रहालय का सबसे बड़ा आकर्षण हैं चंबा क्षेत्र की पनघट शिलाएं। पहाड़ों पर जो जल के स्त्रोत हुआ करते थे, उनके आसपास के पत्थरों में कलाकार नक्काशी करके कई तरह के चित्र अंकित करते थे। इन शिलाओं को पनघट शिलाएं कहते हैं। संग्रहालय में 20 से च्यादा ऐसी पनघट शिलाओं का संग्रह है। इनमें कई शिलाएं चुराह और तीसा क्षेत्र से ली गई हैं। ज्‍यादातर शिलाएं 16वीं सदी की हैं। संग्रहालय के प्रथम तल पर मिनिएचर पेंटिंग की सुंदर गैलरी है। कांगड़ा के राजा संसार चंद कटोच और चंबा के राजा राज सिंह के बीच हुई संधि का तांबे से बना संधि-पत्र भी यहां सहेजा है।

बहुत प्राचीन है ये बाजार

करीब एक हजार वर्ष से अधिक पुराने हैं चंबा के बाजार। यहां आप यहां बनने वाली परंपरागत कला और कारीगरी से जुड़ी वस्तुएं ले सकते हैं। जरूरत की लगभग सभी प्रकार की वस्तुएं मिल जाती हैं। चंबा रूमाल, चंबा चप्पल, चंबा चुख, चंबा जरीस व पीतल के थाल के लिए यहां आप सुविधाजनक मूल्य पर चंबा की निशानी अपने साथ ले जा सकते हैं।

चंबा की खूबियां

सांस्कृतिक रूप से चंबा एक अचंभा है। पहनावा, बोली, आभूषण और संगीत के नजरिये से भी जितनी विविधता चंबा में है, उतनी शायद कहीं किसी और राज्य या जिले में नहीं होगी। इसी तरह लोकगीत भी चंबा में सर्वाधिक हैं। खूबी यह है कि चंबा के गीत लाहौल-स्पीति या शिमला में भी सुने जा सकते हैं, लेकिन उन जिलों के गीत अच्छे होने के बावजूद चंबा में इतने लोकप्रिय नहीं हो सके। चंबा से जुड़े प्रसिद्ध गायक व संगीतकार पीयूष राज के अनुसार चंबा की कुछ धुनें बॉलीवुड में भी जमी हैं। ‘नच मेरी घुंघरिए इसा ढोलकी रे ताना हो..’ का कर दिया गया, ‘बैठ मेरे घोड़े पे..’। इसी प्रकार ‘तेरे माथे जो बिंदलु लाणा गोरिए’ का कर दिया, ‘क्यों चमके क्यों चमके रे कुछ बोल सजनी’.. ‘कुंजू चंचलो’ से प्रेरित होकर कई गीत बने, जिनमें राज कपूर की ‘राम तेरी गंगा मैली’ में इस्तेमाल हुए। सुभाष घई ने ‘ताल’ के लिए भी यहां के लोकगीतों चुने थे और उन्होंने वही गीत रहमान को सुनाए। ताल के संगीत में काफी कुछ चंबा से प्रेरित होकर आया।

  • संपादक कविन्द्र पयाल

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