राजनीति

देश के लोकतंत्र की साख गिराने वाली दलबदल प्रवृत्ति को रोकने के लिए दलबदल विरोधी कानून मौजूद

नई दिल्‍ली। कानून में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें दलबदल पर भी सदस्य को अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकता। कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय की अनुमति है बशर्ते उसके कम से कम दो तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों। ऐसे में न तो दलबदल रहे सदस्यों पर कानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर। इसके अलावा सदन का अध्यक्ष बनने वाले सदस्य को इस कानून से छूट प्राप्त है।

लोकतांत्रिक प्रङ्मिीया में सैद्धांतिक तौर पर राजनीतिक दलों की महत्वपूर्ण भूमिका यह है कि वे सामूहिक रूप से लोकतांत्रिक फैसला लेते हैं। स्वाधीनता के कुछ ही वर्षों के भीतर यह अनुभव किया जाने लगा कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी है। विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं। अक्टूबर, 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर तीन बार दल बदलकर इस मुद्दे को राजनीति की मुख्यधारा में ला दिया था। उस दौर में ‘आया राम गया राम’ की राजनीति देश में काफी प्रचलित हो चली थी। अंतत: 1985 में संविधान संशोधन कर यह कानून लाया गया।

वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दलबदल विरोधी कानून’ पारित किया गया और इसे संविधान की दसवीं अनुसूची में जोड़ा गया। इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में दलबदल की कुप्रथा को समाप्त करना था। इस कानून के तहत किसी जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित किया जा सकता है यदि:

  • एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
  • कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के रुख के विपरीत वोट किया जाता है।
  • कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है
  • छह महीने की अवधि के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है
  •  कानून के अनुसार, सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है। अध्यक्ष जिस दल से है, यदि शिकायत उसी दल से संबंधित है तो सदन द्वारा चुने गए किसी अन्य सदस्य को इस संबंध में निर्णय लेने का अधिकार है

मौजूदा समय में प्रासंगिकता : कानून ने इस तरह की अनिश्चितता को काफी हद तक कम किया। हालांकि चुनाव के आसपास सदस्यता त्यागकर पार्टियां बदलना बदस्तूर जारी है। सदस्यता छोड़ने के बाद कोई भी किसी पार्टी में जा सकता है। ऐसे में कई बार जनता ठगा सा अनुभव करती है, जब कुछ समय पहले तक किसी एक पार्टी की पैरवी कर रहा नेता अचानक किसी अन्य दल के गुण गाने लगता है। इस तरह के मामलों पर लगाम के लिए भी प्रविधान की आवश्यकता अनुभव की जा रही है।

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