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‘द गाजी अटैक’ बनाने में लगे पांच साल: निर्देशक संकल्प रेड्डी

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के साथ ही हम वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारतीय सैनिकों के पराक्रम को नमन करते हुए स्वर्णिम विजय वर्ष मना रहे हैं। उस युद्ध के दौरान भारतीय नौसेना ने बहादुरी से पाकिस्तानी पनडुब्बी गाजी को नष्ट करने के साथ ही देश के नौसेना ठिकानों को सुरक्षित किया था। इस सत्य घटना से प्रेरित है फिल्म ‘द गाजी अटैक’। स्मिता श्रीवास्तव से इस फिल्म के निर्माण की कहानी साझा कर रहे हैं निर्देशक संकल्प रेड्डी

विशाखापटनम में भारतीय सबमरीन का म्यूजियम है, जो समुद्र के पास है। मैं अपने परिवार के साथ पर वहां गया था। वह सब देखने के बाद सबमरीन पर फिल्म बनाने का आइडिया आया था। जब रिसर्च की तो एक कहानी बनी। उस दिन से लेकर फिल्म को रिलीज होने में पांच साल का सफर रहा। मैंने इससे पहले कोई फिल्म निर्देशित नहीं की थी। किसी और फिल्म में काम मिलना भी कठिन था। यह फिल्म मैं तेलुगु में बनाना चाह रहा था, लेकिन तेलुगु में निर्माता तब इस तरह की कहानी को बढ़ावा नहीं देते थे। उनको मनाने में एक साल का वक्त लगा। मैंने अपने पैसे से सेट बनवा दिया था, वीएफएक्स का काम शुरू कर दिया था, ताकि लोगों को मुझ पर यकीन हो। मेरे उस काम को देखकर एक्टर्स मिले, निर्माता मिले, एक बजट मिला, तब जाकर फिल्म शुरू हुई।

हिस्टारिकल फैक्ट्स हैं कि भारतीय वार शिप ने पाकिस्तानी सबमरीन को नष्ट कर दिया था, उस प्वाइंट को लेकर कहानी बनाई गई थी। पाकिस्तानी वर्जन था कि वे पानी में जा रहे थे और उन्होंने जो वाटरमाइन्स लगाई थीं, उनमें ब्लास्ट हो गया था। भारत का प्वाइंट यह था कि उन्होंने एक वार शिप भेजा था, जिसे ढूंढ़कर नष्ट कर दिया गया था। इसके अलावा और भी कई थ्योरी हैं कि भारत ने इंटेलिजेंस की जानकारी पर सबमरीन्स भेजे थे, जिसने गाजी को नष्ट कर दिया था। इन सारी थ्योरीज को मिलाकर एक कहानी में तब्दील किया गया था।

जहां तक फिल्म के शीर्षक की बात है पहले वह मेरे द्वारा लिखी गई पुस्तक ब्लू फिश पर आधारित था, फिर उसको एटीन्थ डे रखा गया, क्योंकि कहानी सबमरीन के भीतर 18 दिनों तक चलती है। उसे महाभारत के युद्ध के साथ सिंबोलाइज किया जाना था। इस फिक्शन एलिमेंट में वास्तविक एलिमेंट गाजी था, जो पाकिस्तानी सबमरीन थी। अगर इतिहास के पन्नों में देखें तो गाजी और आइएनएस राजपूत नाम मिलेंगे। राजपूत भारतीय वार शिप था। हमने इसका नाम प्रयोग नहीं किया था।

हमने सिर्फ गाजी सबमरीन का जिक्र किया था, इसलिए हमने उसी पर फिल्म का नाम रखा। फिल्म के लिए हमने म्यूजियम में रखी सबमरीन की प्रतिकृति तैयार करने का निर्णय लिया। म्यूजियम के क्यूरेटर्स से बहुत सारे इनपुट्स मिले थे। इससे पहले भारत में सबमरीन पर फिल्म नहीं बनी थी। इसलिए वे भी उत्साहित थे, उनके इनपुट्स काम आए। कुछ चीजें मिस भी हो गई थीं, क्योंकि यह पीरियड फिल्म थी और उस वक्त इतने रिसोर्सेस नहीं थे। उसे सही तरीके से दिखाना मुश्किल था। हमने ध्यान रखा कि कहीं कोई गलती न हो। म्यूजियम के क्यूरेटर ने अनेक वीडियोज दिखाए थे। उन्होंने ही एक्टर्स को सिखाया था कि सबमरीन में कैसे काम किया जाता है। जर्मनी में सबमरीन पर बनी फिल्म ‘डैस बूट’ बेहतरीन है। कोशिश रही कि उसकी तरह पानी के भीतर की दुनिया दिखा सकूं। सबमरीन में बहुत सारे कंपार्टमेंट्स होते हैं। एक कंपार्टमेंट को पानी के भीतर हमने रखा था।

बड़े से स्विमिंग पूल के अंदर उसको उतारा था। के के मेनन सर को जब मैंने स्क्रिप्ट दी थी, तब मेरे पास फिल्म के लिए कोई निर्माता नहीं था। उनके मैनेजर ने मुझे कहा था कि बिना निर्माता इस फिल्म को मत बनाओ। जब मुझे निर्माता मिले तो मैं फिर उनके पास गया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। तापसी का किरदार फिल्म में नहीं था। हमें लगा कि एक महिला का कहानी में होना जरूरी है। सबमरीन में महिलाएं नहीं होती थीं। अब अमेरिका में होने लगी हैं। भारत में भी महिलाओं को सबमरीन का हिस्सा होना चाहिए। वह मुद्दा दिखाने के लिए हमने तापसी का किरदार क्रिएट किया। मैं हैदराबाद में रहता हूं। अतुल कुलकर्णी के मुंबई स्थित घर जाकर मैंने उन्हें कहानी सुनाई थी। वह मान गए।

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