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नई दिल्ली में पहले अंतरराष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन में प्रधानमंत्री का उद्घाटन भाषण

नई दिल्ली: भारत के मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े, कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद जी, मंच पर उपस्थित सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश गण, अटॉर्नी जनरल ऑफ इंडिया, इस कॉन्फ्रेंस में आए दुनिया के अन्य उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश, भारत के सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट्स के सम्मानित न्यायाधीश, अतिथिगण, देवियों और सज्जनों !!

दुनिया के करोड़ों नागरिकों के लिए न्याय और गरिमा सुनिश्चित करने वाले आप सभी दिग्गजों के बीच आना, अपने आप में बहुत सुखद अनुभव है।

न्याय की जिस कुर्सी पर आप सभी बैठते हैं, उसका सामाजिक जीवन में भरोसे और विश्वास का महत्वपूर्ण स्थान है।

यह कॉन्फ्रेंस, 21वीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत में हो रही है। यह दशक भारत सहित पूरी दुनिया में होने वाले बड़े बदलावों का दशक है। ये बदलाव सामाजिक, आर्थिक और तकनीकी, हर मोर्चे पर होंगे।

ये बदलाव तर्कसंगत होने चाहिए और न्यायसंगत भी होने चाहिए, ये बदलाव सबके हित में होने चाहिए, भविष्य की आवश्यकताओं को देखते हुए होने चाहिए, और इसलिए ‘न्यायिक तंत्र और बदलता विश्व’ विषय पर मंथन बहुत महत्वपूर्ण है।

साथियों, यह भारत के लिए बहुत सुखद अवसर भी है कि यह महत्वपूर्ण कॉन्फ्रेंस, आज उस कालखंड में हो रही है, जब हमारा देश, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मना रहा है।

पूज्य बापू का जीवन सत्य और सेवा को समर्पित था, जो किसी भी न्यायतंत्र की नींव माने जाते हैं।

और हमारे बापू खुद भी तो वकील थे, बैरिस्टर थे। अपने जीवन का जो पहला मुकदमा उन्होंने लड़ा, उसके बारे में गांधी जी ने बहुत विस्तार से अपनी आत्मकथा में लिखा है।

गांधी जी तब बंबई, आज के मुंबई में थे। संघर्ष के दिन थे। किसी तरह पहला मुकदमा मिला था लेकिन उन्हें कहा गया कि उस केस के ऐवज में उन्हें किसी को कमीशन देना होगा।

गांधी जी ने साफ कह दिया था कि केस मिले या न मिले, कमीशन नहीं दूंगा।

सत्य के प्रति, अपने विचारों के प्रति गांधी जी के मन में इतनी स्पष्टता थी।

और ये स्पष्टता आई कहां से?

उनकी परवरिश, उनके संस्कार और भारतीय दर्शन के निरंतर अध्ययन से।

भारतीय समाज में ‘कानून के नियम’ सामाजिक संस्कारों के आधार रहे हैं।

हमारे यहां कहा गया है- ‘क्षत्रयस्य क्षत्रम् यत धर्म:’। यानि ‘कानून राजाओं का राजा है, यानी कानून सर्वोपरि है।’ हजारों वर्षों से चले आ रहे ऐसे ही विचार ही हर भारतीय की न्यायपालिका पर अगाध आस्था की बड़ी वजह हैं।

हाल में कुछ ऐसे बड़े फैसले आए हैं, जिनको लेकर पूरी दुनिया में चर्चा थी।

फैसलों से पहले अनेक तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं। लेकिन हुआ क्या? 130 करोड़ भारतवासियों ने न्यायपालिका द्वारा दिए गए इन फैसलों को पूरी सहमति के साथ स्वीकार किया। हजारों वर्षों से, भारत, न्याय के प्रति आस्था के इन्हीं मूल्यों को लेकर आगे बढ़ रहा है। यही हमारे संविधान की भी प्रेरणा बना है। पिछले वर्ष ही हमारे संविधान को 70 वर्ष पूरे हुए हैं।

संविधान निर्माता डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था-

“संविधान महज एक कानूनी दस्तावेज नहीं है, यह जीवन को आगे बढ़ाने का माध्यम है और इसका आधार हमेशा ही विश्वास रहा है।”

इसी भावना को हमारे देश की अदालतों, हमारे सुप्रीम कोर्ट ने आगे बढ़ाया है।

इसी भावना को हमारी विधायी और कार्यकारी शक्तियों ने जीवंत रखा है।

एक दूसरे की मर्यादाओं को समझते हुए, तमाम चुनौतियों के बीच कई बार देश के लिए संविधान के तीनों स्तम्भों ने उचित रास्ता ढूंढा है।

और हमें गर्व है कि भारत में इस तरह की एक समृद्ध परंपरा विकसित हुई है।

बीते पांच वर्षों में भारत की अलग-अलग संस्थाओं ने, इस परंपरा को और सशक्त किया है।

देश में ऐसे करीब 1500 पुराने कानूनों को समाप्त किया गया है, जिनकी आज के दौर में प्रासंगिकता समाप्त हो रही थी।

और ऐसा नहीं है कि सिर्फ कानून समाप्त करने में तेजी दिखाई गई है।

समाज को मजबूती देने वाले नए कानून भी उतनी ही तेजी से बनाए गए हैं।

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों से जुड़ा कानून हो, तीन तलाक के खिलाफ कानून हो या फिर दिव्यांग-जनों के अधिकारों का दायरा बढ़ाने वाला कानून, सरकार ने पूरी संवेदनशीलता से काम किया है।

मुझे खुशी है कि इस कॉन्फ्रेंस में ‘विश्व में लैंगिक न्याय’ (जेंडर जस्ट वर्ल्ड) के विषय को भी रखा गया है।

दुनिया का कोई भी देश, कोई भी समाज लैंगिक न्याय के बिना पूर्ण विकास नहीं कर सकता और ना ही न्यायप्रियता का दावा कर सकता है। हमारा संविधान समानता के अधिकार के तहत ही लैंगिक न्याय को सुनिश्चित करता है।

भारत दुनिया के उन बहुत कम देशों में से एक है, जिसने स्वतंत्रता के बाद से ही महिलाओं को वोट देने का अधिकार सुनिश्चित किया। आज 70 साल बाद अब चुनाव में महिलाओं की भागीदारी अपने सर्वोच्च स्तर पर है।

अब 21वीं सदी का भारत, इस भागीदारी के दूसरे पहलुओं में भी तेजी से आगे बढ़ रहा है।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे सफल अभियानों के कारण पहली बार भारत के शैक्षणिक संस्थानों में बालिकाओं का नामांकन लड़कों से ज्यादा हो गया है।

इसी तरह सैन्य सेवा में बेटियों की नियुक्ति हो, लड़ाकू पायलटों के चयन की प्रक्रिया हो, खदानों में रात में काम करने की स्वतंत्रता हो, सरकार द्वारा अनेक बदलाव किए गए हैं।

आज भारत दुनिया के उन कुछ देशों में शामिल है जो देश की करियर वूमेन को 26 हफ्ते का वैतनिक अवकाश देता है।

परिवर्तन के इस दौर में भारत नई ऊंचाई भी हासिल कर रहा है, नई परिभाषाएं गढ़ रहा है और पुरानी अवधारणाओं में बदलाव भी कर रहा है।

एक समय था जब कहा जाता था कि तेजी से विकास और पर्यावरण की रक्षा, एक साथ होना संभव नहीं है।

भारत ने इस अवधारणा को भी बदला है। आज जहां भारत तेजी से विकास कर रहा है, वहीं हमारे वन्य क्षेत्र का भी तेजी से विस्तार हो रहा है। 5-6 साल पहले भारत विश्व की 11वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था था। 3-4 दिन पहले ही जो रिपोर्ट आई है, उसके मुताबिक अब भारत विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है।

यानि भारत ने यह करके दिखाया है कि बुनियादी ढांचे के निर्माण के साथ-साथ पर्यावरण को भी सुरक्षित रखा जा सकता है।

मैं आज इस अवसर पर, भारत की न्यायपालिका का भी आभार व्यक्त करना चाहता हूं, जिसने विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन की गंभीरता को समझा है, उसमें निरंतर मार्गदर्शन किया है।

अनेक जनहित याचिकाओं (पीआईएल) की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने भी पर्यावरण से जुड़े मामलों को नए सिरे से परिभाषित किया है।

आपके सामने न्याय के साथ ही, शीघ्र न्याय की भी चुनौती हमेशा से रही है। इसका एक हद तक समाधान तकनीक के पास है।

विशेष तौर पर अदालत के प्रक्रियागत प्रबंधन को लेकर इंटरनेट आधारित तकनीक से भारत की न्यायिक प्रणाली को बहुत लाभ होगा।

सरकार का भी प्रयास है कि देश की हर कोर्ट को ई-अदालत एकीकरण मिशन मोड परियोजना से जोड़ा जाए। राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड की स्थापना से भी अदालत की प्रक्रियाएं आसान बनेंगी।

आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और मानवीय विवेक का तालमेल भी भारत में न्यायिक प्रक्रियाओं को और गति देगा। भारत में भी न्यायालयों द्वारा इस पर मंथन किया जा सकता है कि किस क्षेत्र में, किस स्तर पर उन्हें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की सहायता लेनी है।

इसके अलावा बदलते हुए समय में डाटा सुरक्षा, साइबर अपराध जैसे विषय भी अदालतों के लिए नई चुनौती बनकर उभर रहे हैं। इन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए, ऐसे अनेक विषयों पर इस सम्मेलन में गंभीर मंथन होगा, कुछ सकारात्मक सुझाव सामने आएंगे। मुझे विश्वास है कि इस सम्मेलन से भविष्य के लिए अनेक बेहतर समाधान भी निकलेंगे।

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