राजनीति

बतौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय का विवादों से रहा नाता

देहरादून: प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर किशोर उपाध्याय तीन साल पूरे नहीं कर सके। करीब पौने तीन साल का उनका कार्यकाल विवादों से भरपूर रहा। उनके कार्यकाल में ही प्रदेश में पार्टी दस विधायकों की बड़ी बगावत से दो-चार हुई। सरकार के सहयोगी विधायकों के संयुक्त मोर्चा प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) को लेकर तनातनी पर सार्वजनिक रूप से नाराजगी, कार्यकर्ताओं को सरकारी ओहदे तो विधानसभा चुनाव के मौके पर टिकटों के वितरण में नाराजगी जाहिर करने से किशोर नहीं चूके।

सूबे में वर्ष 2014 में कांग्रेस सरकार की कमान हरीश रावत के हाथों में आने के महज साढ़े चार माह बाद ही प्रदेश संगठन की बागडोर भी उनके विश्वस्त करीबियों में शुमार किशोर उपाध्याय को सौंप दी गई थी। इसके बाद सरकार और संगठन की जुगलबंदी से संगठन नए कलेवर में खड़ा तो हुआ, लेकिन पीडीएफ को लेकर धीरे-धीरे दोनों के बीच दरारें बढ़ती चली गईं।

खासतौर पर विधानसभा उपचुनाव में जैसे ही विधानसभा में कांग्रेस की स्थिति मजबूत हुई तो संगठन के भीतर से उठने वाले दबावों को सरकार के सामने हवा देने में किशोर ने कसर नहीं छोड़ी। पीडीएफ को लेकर बढ़ती तकरार के पीछे उनकी खुद की सियासी जमीन बचाए रखने की चिंता से जोड़कर देखा गया। बहरहाल, इस मुद्दे पर कई मौकों पर सरकार को भी खासी किरकिरी उठानी पड़ी।

यही नहीं, संपत्ति की घोषणा हो या पार्टी विधायकों पर गनर छोड़ने के दबाव को लेकर भी बतौर प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय का स्टैंड सरकार के साथ विवादों को लेकर खासा चर्चित रहा। हालांकि, बीते वर्ष मार्च माह में कांग्रेस सरकार पर संकट मंडराने के मौके पर किशोर मजबूती से सरकार के साथ खड़े दिखे, लेकिन संकट टलते ही राज्यसभा चुनाव में संगठन को तरजीह नहीं मिलने समेत विभिन्न मौकों पर उनकी नाराजगी खुलकर सामने आई। विधानसभा चुनाव के मौके पर टिकट वितरण में भी खींचतान का ये दौर चला।

 

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