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मुखौटों के पीछे जिंदा हैं रावण, पहचान कर करना होगा अंत

देहरादून: हमारे कर्म राक्षसी, प्रवृत्ति दंभी व व्यभिचारिणी, विवेक सुप्त, निष्ठा संकीर्ण, क्षुद्र व स्वार्थी और संस्कार यदि दूषित हैं तो धर्म, जाति, कुल, प्रतिष्ठा, मान्यता व राजयोग हमारे भीतर के रावण को अधिक समय तक समाज की नजरों से छिपाए नहीं रख सकते। इसीलिए आज हमें चारों ओर रावण ही रावण नजर आ रहे हैं। हम इन रावणों के पुतलों का दहन तो कर देते हैं, लेकिन रावणी प्रवृत्ति का दहन करने का हौसला आज तक हममें नहीं। हम रावण के इसी रूप से पाठकों को परिचित करा रहे हैं।

विजयदशमी के दिन हम हर साल धूमधाम से बुराई एवं असत्य के प्रतीक रावण, कुंभकर्ण, मेघनाद आदि के पुतले जलाते हैं। समाज से बुराइयों को खत्म करने और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के आदर्शों पर चलने का भावनात्मक संकल्प लेते हैं।

बावजूद इसके सवाल वहीं का वहीं है कि क्या हम वास्तव में रावण का अंत कर पाए। क्या रावण हमारे अंदर नहीं है। सच तो ये है कि रावण आज चप्पे-चप्पे में मौजूद है। वह पारिवारिक रिश्तों में भी है और सामाजिक जिम्मेदारियों में भी।

कला, संस्कृति, साहित्य, शिक्षा व कानून-व्यवस्था में भी रावण के दर्शन किए जा सकते हैं। बल्कि, अब तो न्याय भी इसकी छाप लिए होने का आभास देता है। बस! हम उसे पहचान नहीं पा रहे हैं या यूं कह लीजिए की पहचानना ही नहीं चाहते।

विचार कीजिए, यदि मुखौटों के भीतर छिपे रावण को हम पहचानेंगे नहीं तो उसे मार कैसे पाएंगे। क्या अपने अंदर बैठे रावण से दो-दो हाथ किए बिना हमें चारों ओर फैले पड़े रावणों से कभी मुक्ति मिल पाएगी।

देवाधिदेव भगवान शंकर के पुरोहित पद पर प्रतिष्ठित, सप्तऋषियों में से एक पुलस्त्य का पौत्र, महापंडित विश्रवा का पुत्र रावण ऋषिकुल में जन्म लेने के बाद भी राक्षस केरूप में ही याद किया जाता है।

यह कर्मों की गति ही तो है। आज रावण संज्ञा नहीं, संज्ञेय है, परिभाष्य है। वह मात्र एक पात्र नहीं, चरित्र है। महज स्त्रीहर्ता नहीं, सुसंस्कार द्रोही है। घटना नहीं, परंपरा है और इसीलिए एकल नहीं, बहुल है, सर्वत्र है। घूसखोर, बेईमान, भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी, दंभी, क्रोधी, स्वार्थी, संस्कारहीन, विवेक सुप्त आदि सभी रावण के ही तो प्रतिरूप हैं।

यदि तात्कालिक स्वार्थों में अंधे होकर हम इन रावणों को पहचान नहीं रहे या पहचानते हुए इस ओर आंखें मूंदे हुए हैं तो प्रकारांतर से यह एक और रावण के भ्रूण विकास की सूचना ही तो है। अगर आदमीयत, समाज एवं राष्ट्र की शुचिता की कोई अहमियत हमारे भीतर है तो इन बालिग-नाबालिग व गर्भस्थ रावणों को पहचानने के लिए अपनी क्षमता का विकास करना हमारा नैसर्गिक ही नहीं, नैतिक दायित्व भी है।

विस्तार ही रावण का बीजमंत्र

‘सत्यमेव जयते’ रावण को नहीं सुहाता। इसमें उसे अपनी मौत दिखती है। चिरस्थायी मौत। कुल का नाश। भविष्य में कोई नामलेवा व पानीदेवा भी न बचे, ऐसा अंत। तब कैसे सह सकता है रावण सत्य की ही जीत की उद्घोषणा। राजनीति रावणी माया जाल का सबसे सुदृढ़ पाया है। इसके बहुत सारे प्रतिरूप हैं। कुछ आधे-अधूरे तो कुछ एक-दूसरे के परिपूरक।

विस्तार ही रावण का बीजमंत्र है। भौतिक विस्तार, मानसिक विस्तार। क्योंकि जिस दिन उसके इस स्वच्छंद विस्तार पर कोई अंकुश लगेगा, उसी दिन से उसकी माया छंटनी शुरू होगी, दिग्विजय का सपना टूटेगा। अटल सामाजिक मूल्य फिर स्थापित होना शुरू होंगे।

सामाजिक विधानों से ऊपर है रावण

रावण तो तीनों लोकों की सत्ता हासिल करने का भ्रम पाले बैठा है। अलग-अलग रूप और अपने-अपने दायरे में वह स्वयं को त्रिलोकपति समझने लगा है। इसलिए वह स्वयं को सामाजिक विधानों से ऊपर मानता है।

रूढ़ियों को संस्कृति एवं संस्कारों का हिस्सा बताना रावणी कूटनीति का महत्वपूर्ण अंग है। जबकि संस्कृति एवं संस्कार वैमनस्य नहीं पनपाते। वह तो राष्ट्र के जीवन की जड़ें हैं। व्यक्ति पहले समाज और फिर राष्ट्र में बदलता ही संस्कृति एवं संस्कारों के सहारे है। अन्यथा आदिम युग से आज तक की विकास यात्रा कैसे संभव हो पाती। कैसे रावण पर राम की जीत की आशाएं जागतीं।

राम की पूजा, रावण का मोह

हम राम को तो पूजते हैं, लेकिन अंतर्मन में रावण का मोह नहीं टूटता। अपने भीतर पूरी ईमानदारी से झांककर देखें तो महसूस करेंगे कि हमारे दिमाग में यह जो कुछ घुसता सा जा रहा है, वह हमारे अपने भीतर से उपजा हुआ नहीं है। हमें जो कुछ परोसा गया है और अभी भी परोसा जा रहा है, उसी की उपज है यह।

खंडित व्यक्तित्व का स्वामी है रावण

रावण का प्रतीक एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। पश्चिम में मनोविज्ञान ने कई मनोरोगों की खोज की है, जिनमें एक है स्किजोफ्रेनिया यानी खंडित व्यक्तित्व। जब व्यक्तित्व अत्याधिक जटिल हो तो उसके दो नहीं, अनेक टुकड़े हो जाते हैं। हमारा सामाजिक जीवन एक दिखावा होता है। हम जैसे हैं, वैसे बाहर नहीं दिखा सकते, इसलिए हमें नकली चेहरे (मुखौटे) ओढ़ने  पड़ते हैं। जरूरत होने पर हम इन्हें बदल लेते हैं। धीरे-धीरे यह भी संभव है कि इस पाखंड में हम खुद को भी भुला बैठें।

फरेब के ही हो सकते हैं कई चेहरे

हम रावण की कथा पढ़ते हैं, लेकिन शायद हमें उसका अर्थ नहीं मालूम कि रावण दशानन है। उसके दस चेहरे हैं। राम प्रामाणिक हैं। उन्हें हम पहचान सकते हैं, क्योंकि वह कोई धोखा अथवा फरेब नहीं हैं। रावण को पहचानना मुश्किल है।

उसके अनेक चेहरे हैं। दस का मतलब ही अनेक है, क्योंकि दस से बड़ी कोई संख्या नहीं। दस आखिरी संख्या है और इसके आगे हम मनचाही संख्या जोड़ सकते हैं। रावण असुर है और हमारे चित्त की दशा जब तक आसुरी रहती है, तब तक हमारे भी दशानन की तरह बहुत सारे चेहरे होते हैं। तब हम भूल जाते हैं कि हमारा स्वरूप क्या है।

इस स्थिति में अपने भीतर मौजूद दशानन को हम कैसे जलाएं। ऐसा तो रावण को नकारने पर ही संभव हो पाएगा। …और इसके लिए हमें रावण के अस्तित्व को नकारने का शुतुरमुर्गी तरीका अपनाने की जगह उसकी आंखों में आंखें डालकर उसे ही सच्चाई का दर्पण दिखाना होगा।

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