अपराध

शराब से मुक्ति के लिए फिर चट्टान बनी नारी

उत्तराखंड की वादियां 23 साल बाद फिर मातृशक्ति की हुंकार से गूंज रही हैं। तब महिलाओं ने अलग राज्य के लिए मुट्ठियां तानीं तो अब वह युवा पीढ़ी के भविष्य की खातिर शराब के खिलाफ मुखर हैं। हाईवे से हटाई जा रही शराब की दुकानें गली-मोहल्लों व गांवों में शिफ्ट करने को चल रही कवायद से महिलाएं आक्रोशित हैं।

पहाड़ से मैदान तक सड़कों पर उतरी महिलाएं कहीं लाठी-डंडे लेकर गांव में शराब की दुकान खोलने का विरोध कर रही हैं तो कहीं धरना-प्रदर्शन के माध्यम से। पिछली सदी से अब तक के सफर पर नजर डालें तो यह पहला मौका नहीं, जब महिलाएं शराब के खिलाफ आगे आई हैं। इस उम्मीद से किउत्तराखंड को शराबमुक्त करने के लिए सरकार कोई न कोई पहल जरूर करेगी।

विषम भूगोल वाले उत्तराखंड के सामाजिक, आर्थिक ताने-बाने को शराब ने गहरे तक प्रभावित किया है। खासकर पहाड़ की रीढ़ कही जाने वाली मातृशक्ति इससे सर्वाधिक प्रभावित रही है। यही वजह भी है कि महिलाएं शराब के खिलाफ हमेशा ही मुखर रहीं। उत्तराखंड के शराब विरोधी आंदोलनों को दो हिस्सों में बांटकर देखा जा सकता है। पहला सामाजिक बुराई के तौर पर शराब का विरोध और दूसरा राजनीतिक तरीके से लड़ाई लड़ना

शराब के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत बीती सदी के 60 के दशक से मानी जा सकती है। तब सर्वोदय आंदोलन से जुड़ी विमला बहन समेत अन्य महिलाओं ने पहाड़ में शराब की जड़ें उखाड़ने का संकल्प लिया। धीरे-धीरे पूरे पहाड़ में शराब विरोधी आंदोलन फैल गया। साठ के दशक में ही माई इच्छागिरि ने टिंचरी के खिलाफ संघर्ष छेड़ा। इस सबके चलते 1970 में तत्कालीन उप्र सरकार ने पौड़ी और टिहरी जिले में शराबबंदी कर दी। अन्य जिलों में ऐसी मांग उठी तो 1977 में यहां शराब पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया।

यह नारी शक्ति की बड़ी जीत थी, लेकिन शराब से प्रतिबंध हटते ही माफिया ने फिर से पूरे क्षेत्र को अपने शिकंजे में जकड़ लिया। ऐसे में फिर से शराब विरोधी आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हुई। पिछले अनुभव से सबक लेते हुए यह लड़ाई राजनीतिक तरीके से लड़ने का निश्चय किया गया।

इसी की परिणति है 1984 में शुरू हुआ ‘नशा नहीं रोजगार दो’ आंदोलन। इस बीच पत्रकार उमेश डोभाल ने शराब के खिलाफ संघर्ष को लेखनी के जरिए धार दी तो 1989 में माफिया ने उनकी हत्या कर दी। फिर तो पहाड़ में उबाल आ गया। लेकिन, तत्कालीन सरकारें शराब विरोधी आंदोलन को एक प्रकार से नजरअंदाज ही करती रहीं।

1994 में शुरू हुए उत्तराखंड आंदोलन में एक बड़ी मांग पहाड़ को शराबमुक्त करने की भी थी। इस आंदोलन में महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी की। उनके संघर्ष की बदौलत राज्य तो बना, मगर शराब से निजात नहीं मिली। खैर! अब फिर से महिलाएं शराब के खिलाफ सड़कों पर हैं, देखते हैं इसकी क्या परिणति होती है।

 

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