राजनीति

सिंदूर के ठीक पूर्व जाति जनगणना- नीलकंठाय संघवे अमृतेषाय सर्वाय

डॉ. प्रवीण दाताराम
भारत की एकता-अनेकता, खंडन-मंडन-विखंडन, रसता-समरसता, श्रेय-हेय, उत्कर्ष-निष्कर्ष, सफलता-असफलता, सबलता-निर्बलता आदि-आदि जैसे सभी तत्व हमारी जाति व्यवस्था के सुफलित होने पर ही निर्भर करता है। पाकिस्तानी आतंकियों द्वारा बाईस अप्रैल के पहलगाम अटैक के बाद कुछ लोग कह रहे थे कि यह देश का ध्यान बाँटने का केंद्र सरकार का प्रयत्न है। वस्तुत: जाति आधारित जनगणना की घोषणा का यदि कोई देवयोग था, तो वह पाकिस्तान पर भारतीय हमले की यह पूर्वसंध्या ही थी। यह देश को एक करने, एक रखने, एक दिशा में बढ़ाने का सर्वाधिक सटीक समय है। अब राष्ट्रीय संकट के इन दिनों, महीनों या वर्षों में हम जातिगत गणना भी करेंगे और सभी जातियाँ एकात्म होकर भारतीय सेना के संग खड़ी भी दिखेंगी। यही है नया भारत।
मूल बात- संघ का दृष्टिकोण- यदि, जातिगत जनगणना का उद्देश्य न्याय और कल्याण है, तो समर्थन है; यदि इसका उद्देश्य राजनीति और समाज को बांटना है, तो उसका सदैव ही विरोध है।
भारत की एकता-अनेकता, खंडन-मंडन-विखंडन, रसता-समरसता, श्रेय-हेय, उत्कर्ष-निष्कर्ष, सफलता-असफलता, सबलता-निर्बलता आदि-आदि जैसे सभी तत्व हमारी जाति व्यवस्था के सुफलित होने पर ही निर्भर करता है। जाति व्यवस्था के उत्कृष्ट प्रयोग से हम हमारे देश संगठन का समुत्कर्ष प्राप्त कर सकते हैं तो निकृष्ट उपयोग से हम रसातल में भी जा सकते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारतीय जाति व्यवस्था को लेकर यही राय रही है। इस राय के अनुरूप ही आरएसएस भारतीय जाति व्यवस्था पर समय-समय पर प्रयोग-अनुप्रयोग करता है और करता रहेगा।
अपनी सौ वर्षों की यात्रा में संघ का यह जाति विमर्श देश के समक्ष प्रामाणिकता से स्पष्ट व स्थापित है। इस अवसर पर आरएसएस सौ वर्षीय प्रामाणिक जातीय दृष्टिकोण निश्चित ही देश को इस निर्णय की व्यापक पूर्व अध्ययन जनित पीठिका का आभास देता है। “संघ जो करेगा ठीक ही करेगा”, आज देश का जनमानस ऐसा सोचने की सुलभ-सहज स्थिति में है। यह सब एकाएक नहीं हुआ है, यह संघ की शतवर्षीय अनथक, अनवरत यात्रा से उपजा तपोबल है। जनता स्पष्टत: जानती है, यदि भाजपा ने जातिगत गणना में तनिक भी राजनैतिक दृष्टिकोण रखा तो सर्वप्रथम संघ ही उसे रोकेगा।
संघ इस निर्णय को तब तक ही मानेगा जब तक यह “न्याय और कल्याण का उपकरण है। सामयिक, सटीक, नवनुतन रहने वाले संघ ने इस नवीन तथ्य को माना है कि “कल्याणकारी शासकीय योजनाओं की सटीकता हेतु विवेचक सांख्यिकी अनिवार्य हैं। इस सांख्यिकी के बिना, शासकीय योजनाएं अनुचित वर्ग को लाभान्वित करती हैं, और, दूसरी ओर वंचित वर्ग वंचित ही रह जाता है।
‘उन्हें इतना सारा मिला, हमें केवल ही इतना मिलाÓ, जैसे भाव समाज में उभरने की पर्याप्त संभावनाएँ हैं। इन भावों के उन्मूलन में भी निश्चित ही अपनी सांगठनिक शक्ति, समाज में पैठ व शुचिता के आधार पर, संघ, देश की मदद कर पायेगा यह विश्वास है। बल्कि, यह भी कहा जा सकता है कि जातिगत जनगणना के मंथन में जो विष निकलेगा उसे पीना और नीलकंठ बनना केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वश की ही बात है। सुधिजन, श्रेष्ठीजन यहाँ यह प्रश्न कर सकते हैं कि यदि संघ को इस मंथन से विष निकलने का इतना ही विश्वास है तो फिर इस मंथन को संघ रोकने का प्रयास क्यों नहीं कर रहा?! इसका उत्तर है कि “एक समय विशेष या कालखंड विशिष्ट में समाज का मंथन भी आवश्यक है और उससे निकले गरल कंठस्थ करना, नीलकंठ बनना और समाज को अमृतपान कराना भी आवश्यक है”। निश्चित ही संघ इस कार्य को भली भाँति कर पायेगा।
मूल भारतीय समाज में, अर्थात् हिंदू व हिंदू जनित अन्य धर्मावलंबियों के मानस में एक बात बड़ी स्पष्ट है- “यदि समाज का कोई अंग पीछे है तो उसे आगे लाना ही है” जातिगत सांख्यिकी और उनके विकास के सटीक आंकड़ों से, कई आशंकाओं, विसंगतियों व विराधाभासों का शमन हो जाएगा।
इस आधार पर ही संघ ने केंद्र सरकार के जाति आधारित जनगणना के निर्णय के तत्काल बाद कहा- “यदि जातिगत जनगणना का उद्देश्य न्याय और कल्याण है, तो समर्थन योग्य है; और, यदि इसका उद्देश्य राजनीति और समाज को बांटना है, तो उसका सदैव ही विरोध”। एक पंक्ति का कथन और सभी को स्पष्ट और दो टूक मार्गदर्शन! इस अवसर पर मुझे एक प्रसंग स्मरण में आता है- ‘पिछले वर्षों की ही बात है, संघ का एक उच्चस्तरीय पंच दिवसीय चिंतन शिविर बड़ोदरा में आयोजित था। इस कार्यशाला में सर संघचालक जी, सभी सरकार्यवाह जी सहित, समूचा शीर्षस्थ नेतृत्व पूरे समय बिना किसी प्रोटोकाल के सभी कार्यकर्ताओं के मध्य ही भोजन, चर्चा, विश्राम में निमग्न रहता था। कार्यशाला के दूसरे दिन सत्र के मध्य ही किसी अन्य स्वयंसेवक ने मेरी जाति आधारित किसी बात पर तीक्ष्ण प्रतिक्रिया व्यक्त कर दी। मैंने कोई प्रतिक्रिया, प्रत्युत्तर नहीं दिया। पाँचवे दिन अपने समापन भाषण में संघ नेतृत्व ने बिना किसी का नाम लिए इस घटना उल्लेख किया- “जिसने जातीय दृष्टिकोण से अपनी बात रखी उसने अपने अध्ययन से, सुधार की सकारात्मक आशा से बात रखी, किंतु, जिसने प्रतिक्रिया दी, उसने केवल जाति विशेष का प्रतिनिधि बनकर उत्तर दिया। ध्यान रहे, हम सब इस कार्यशाला में केवल और केवल एक स्वयंसेवक के रूप में सम्मिलित हुए हैं, किसी जाति का प्रतिनिधि बनकर नहीं।” संघ के उन शीर्षस्थ अधिकारी ने जिस कठोर शैली में अपनी इस बात को रखा था उससे संघ का यह स्पष्ट मत, पुनर्प्रसारित हुआ कि संघ के आयोजनों, चर्चाओं में जब हम आते हैं तो केवल एक स्वयंसेवक बनकर आना ही उचित होता है। अपनी जातिगत पहचान को हम अपने जूतों के साथ कक्ष के बाहर ही छोड़ आते हैं।
जाति आधारित जनगणना के निर्णय के संदर्भ में कुछ मत आए हैं, जैसे- जाति जनगणना, हिन्दुत्व की पुर्णाहुति है। और जैसे, अगर जाति जनगणना होती है तो यह संघ की नाभि नाल में जहर भर देने जैसा होगा। ऐसी और कितनी ही कठोर आशंकाओं के मध्य भी यदि संघ या भाजपा ने सुधार या सोशल रिफार्म का गरल होकर नीलकंठ होने का प्रयास किया है तो यह संघ की नित्य प्रार्थना के इस भाव को ही व्यक्त करता है- श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं, स्वयं स्वीकृतं न: सुगं कारयेत्।। अर्थात्, हे भारतमाता, हमें ऐसा ज्ञान दे कि स्वयं स्वीकृत व चयनित यह कंटकाकीर्ण (कांटो भरा) यह मार्ग सुगम हो जाये। स्वयंसेवक बाहुल्य वाली भाजपा ने जाति आधारित जनगणना का यह कांटो भरा मार्ग, राष्ट्रहितार्थ स्वयं ही चुना है।
संघ की जाति संदर्भित अकाट्य व सर्वस्वीकृत मान्यता भी स्वयंसिद्ध सिद्धांत ही तो है- “जातिवाद एक सामाजिक विकृति है, उसे समाज सुधार से हटाया जाना चाहिए, कानून से नहीं थोपना चाहिए।” संघ में बहुधा ही कहीं जाने वाली एक बड़ी सरल, सहज, सिद्ध पंक्ति भी संघ के जाति दर्शन को स्पष्ट करती है- “हर समस्या का हाल केवल एक- हम सब हिंदू एक, हम सब हिंदू एक”।
संघ पूज्य श्रीगुरुजी ने जो कहा, “हमारा हिंदू समाज एक महासागर है- उसमें कोई उथला नहीं, कोई गहरा नहीं।” बाला साहब देवरस ने दोहराया- “यदि स्वयं ईश्वर धरा पर उतरकर इस जातिगत भेदभाव को स्वीकार करने को कहेंगे, तो मैं उनकी बात भी नहीं मानूँगा”। तो आइए हम सभी जातियां मिलकर एक दूजे को सिंदूर लगाएँ और संघ की यह बात भी दोहराएँ कि “जाति, हिंदू समाज की पहचान नहीं, उसका असंतुलन है। उसे दूर करना हमारी प्राथमिक जिम्मेदारी है।”

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