हरदा के हरेला में सियासत का तड़का, जानिए हरेला की खासियत
देहरादून, : पहले काफल पार्टी, फिर आम पार्टी और अब हरेला पर्व पर पहाड़ी व्यंजनों की दावत के बहाने पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत सियासी परिदृश्य में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब रहे। हर बार की तरह इस दफा भी हरदा अपने अलग ही अंदाज में भाजपा सरकार पर निशाना साधने से नहीं चूके।
उत्तराखंड के हरेला पर्व को वृक्षारोपण और पर्यावरण संरक्षण से जोड़कर अपनी सरकार के दौरान प्रदेश भर में अभियान चलाने वाले रावत ने कहा कि भाजपा सरकार को इस आयोजन को आगे बढ़ाना चाहिए था, यह सरकार का आयोजन था, मेरा व्यक्तिगत या कांग्रेस का आयोजन नहीं।
पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी पराजय के बाद यूं तो फिलहाल पार्टी की मुख्यधारा से कुछ अलग हट गए हैं, लेकिन इसके बावजूद वह अपने सियासी कद का अहसास कराने का कोई मौका नहीं चूकते।
कांग्रेस विधानसभा चुनाव में महज 11 सीटों पर आ सिमटी तो रावत ने मुख्यमंत्री होने के नाते इसकी जिम्मेदारी लेने से भी गुरेज नहीं किया। प्रदेश संगठन में नेतृत्व परिवर्तन हुआ और किशोर उपाध्याय की जगह प्रीतम सिंह को प्रदेश अध्यक्ष का जिम्मा मिला। उधर, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष का दायित्व वरिष्ठ विधायक डॉ. इंदिरा हृदयेश को सौंपा गया।
इस स्थिति में कयास लगाए जा रहे थे कि हरीश रावत कांग्रेस के भीतर कुछ कमजोर पड़ सकते हैं, लेकिन पार्टी के अंदरूनी मामलों में दखल से बचते हुए उन्होंने स्वयं की अहमियत बनाए रखी। भाजपा सरकार की तरफ से किए जाने वाले हमलों का जवाब देना हो या फिर सियासी गलियारों उठती रही चर्चाओं का, रावत मोर्चा संभालते रहे हैं।यही नहीं, अलग-अलग तरह के आयोजन कर अपने इर्द-गिर्द समर्थकों का जमावड़ा लगाने की कला भी उन्होंने खुलकर दिखाई। गर्मियों में पहाड़ी फल काफल की दावत और फिर आम की पार्टी देकर उन्होंने सरकार ही नहीं, अपनी पार्टी के नेताओं को भी साफ संदेश दे दिया कि भले ही चुनाव नहीं जीत पाए, मगर सियासी दांवपेच थमेंगे नहीं।
उन्होंने अपने आवास पर उत्तराखंड के पारंपरिक त्योहार हरेला के अवसर फिर एक सांस्कृतिक आयोजन किया। दरअसल, मुख्यमंत्री रहते हुए रावत ने हरेला पर्व को वृक्षारोपण से जोड़ते हुए पूरे प्रदेश में अभियान चलाया था मगर सत्ता बदलते ही नई सरकार ने वृक्षारोपण कार्यक्रम तो तय कर दिया मगर इसमें से हरेला गायब हो गया।
भला हरदा कैसे खामोश रहते, लिहाजा हरेला पर आयोजित पहाड़ी व्यंजनों की दावत का लुत्फ लेने का मौका तो उन्होंने दिलाया ही, साथ ही प्रदेश सरकार को कठघरे में भी खड़ा कर दिया।
क्या है हरेला
हरेला उत्तराखंड के परिवेश और खेती के साथ जुड़ा हुआ पर्व है। हरेला पर्व वैसे तो साल में तीन बार आता है, चैत्र मास, श्रावण मास और आश्विन मास लेकिन उत्तराखंड में श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला को ही अधिक महत्व दिया जाता है।
श्रावण शुरू होने से नौ दिन पहले हरेला बोने के लिए एक टोकरी में मिट्टी डालकर गेहूं, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों आदि पांच या सात प्रकार के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिन इस टोकरी में रोज सुबह पानी डालते हैं। दसवें दिन इसे काटा जाता है।
चार से छह इंच लंबे इन पौधों को ही हरेला कहा जाता है। घर के सदस्य इन्हें बहुत आदर से सिर पर रखते हैं। घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में हरेला बोया और काटा जाता है। मान्यता है कि हरेला जितना बड़ा होगा उतनी ही फसल बढ़िया होगी।