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जानिए, कालापानी को लेकर चीन के बेबुनियाद दावे का सच

देहरादून : हालिया दिनों में भारत के महासर्वेक्षक पद से सेवानिवृत्त हुए स्वर्ण सुब्बाराव ने कालापानी क्षेत्र में घुसने के चीन के दावे को आधारहीन बताया। उन्होंने कहा कि भारत और नेपाल के बीच उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के कालापानी क्षेत्र को लेकर सीमा विवाद सिर्फ तकनीकी स्तर पर नजर आता है और सच्चाई यह है कि दोनों ही देशों ने इस विवाद को कभी हवा देने की कोशिश नहीं की। न ही कभी यह विवाद सतह पर नजर आया, जबकि इससे इतर दोनों ही देश समय-समय पर सीमाओं को लेकर संयुक्त सर्वे करते रहे हैं।

सेवानिवृत्त महासर्वेक्षक सुब्बाराव ने बताया कि उत्तराखंड में पिथौरागढ़ जिले का कालापानी क्षेत्र भारत, नेपाल व चीन सीमा का ट्राई जंक्शन (तीन अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर पड़ने वाला स्थान) है। तकनीकी रूप से भारत और नेपाल के बीच इस क्षेत्र में लंबे समय से सीमा स्पष्ट नहीं हो पाई है।

चीन यह मानता है कि यदि वह इस क्षेत्र में घुस आए तो भारत के साथ सीमा विवाद के चलते नेपाल उसकी मदद करेगा। मंगलवार को चीन के सीमा मामलों के वरिष्ठ अधिकारी वांग वेन्ली के बयान में भी यह दावा किया गया।

इस दावे को खारिज करते हुए पूर्व महासर्वेक्षक ने कहा कि नेपाल और भारत के बीच इस क्षेत्र में विवाद की ऐसी तस्वीर नहीं है कि चीन उसका लाभ उठा ले। क्योंकि पूर्व में भी भारत-नेपाल सीमा को लेकर जो भी बैठकें होती आई हैं, उनमें इस सीमा क्षेत्र को किसी ज्वलंत प्रश्न की तरह नहीं रखा जाता।

नेपाल ने कभी इस क्षेत्र में सीमा की स्थिति स्पष्ट करने को लेकर दबाव नहीं बनाया है। वर्ष 2007 में भारत-नेपाल के संयुक्त सर्वे में 182 नक्शे तैयार किए गए थे, जबकि तकनीकी कारणों के चलते इस सीमा पर चर्चा नहीं की गई। दोनों ही देशों ने किसी भी तरह के विवाद से बचने के लिए फिलहाल इस क्षेत्र संयुक्त सर्वे व किसी तरह की चर्चा से बाहर रखा है।

उधर, वर्तमान में भारत के महासर्वेक्षक वीपी श्रीवास्तव का कहना है कि डोकलाम के ताजा हालात और कालापानी को लेकर चीन के ताजा बयान बाद इस पर आगामी वार्षिक बैठक में चर्चा की जाएगी। हालांकि फिलहाल भारत और नेपाल के बीच इस सीमा को लेकर जल्दबाजी जैसी कोई स्थिति नहीं है।

इतिहास के आईने में कालापानी 

उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल में ब्यांस पट्टी स्थित कालापानी क्षेत्र वर्ष 1815 में गोरखा युद्ध के बाद भारतीय भूमि का हिस्सा बन गया था। भारत में उस समय राज कर रही ब्रिटिश सरकार और नेपाल के बीच शांति संधि हुई। इसके परिणामस्वरूप काली नदी के पश्चिम का क्षेत्र नेपाल के महाराजा ने ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया।

कालापानी स्रोत से निकलने वाली धारा काली नदी ही है, लिहाजा इस धारा के पश्चिमी भाग के क्षेत्र तब से ही कुमाऊं मंडल का हिस्सा हैं। इसके आधार पर कालापानी स्रोत तक काली नदी के साथ-साथ लिपु धुरा तक सीमा रेखा तय कर दी गई।

ब्रिटिशकाल में 1879 में तैयार किए गए कुमाऊं व गढ़वाल के मानचित्र में इस क्षेत्र को भारत का हिस्सा बताया गया है। बताया जाता है कि मूल मानचित्र लंदन स्थित ब्रिटिश-भारत पुस्तकालय में उपलब्ध है।

घुसपैठ महज दबाव की रणनीति

डोकलाम के बाद चीन की कालीनदी से घुसपैठ की चेतावनी को राज्य के पूर्व सैन्य अफसरों ने बेदम बताया है। उनका मानना है कि भारत पर दबाव बनाने की चीन की यह सिर्फ रणनीतिक चाल है। भारत की सेना चीन के इस मंसूबे को कभी भी साकार नहीं होने देगी।

भारत-नेपाल की कालीनदी उत्तराखंड से लगी है। चीन बाड़ाहोती, डोकलाम के बाद इस क्षेत्र में भी घुसपैठ की धमकी दे रहा है। मगर, भारत ने यहां धारचूला क्षेत्र में पूरी तैयारी के साथ सेना को तैनात कर रखा है।

धारचूला तहसील की व्यास घाटी में आने वाला कालापानी क्षेत्र भारत का अभिन्न हिस्सा रहा है। भारत और नेपाल के बीच 1816 में हुई संधि में नेपाल ने कालापानी को भारत का हिस्सा माना है।

ऐसे में अब नेपाल में माओवाद और नजदीकी का फायदा चीन उठाने की फिराक में है। चीन के सीमा मामलों के वरिष्ठ अधिकारी वांग वेन्ली ने जिस तरह से साफ किया कि चीन कालापानी से घुसपैठ कर सकता है। इस बयान के बाद राज्य के पूर्व सैनिकों ने भी चीन को जवाब दिया कि इस क्षेत्र से भारत पूरी तरह से मजबूत है। भारत चीन को बाड़ाहोती और काली नदी में कदम तक नहीं रखने देगा।

भारत डोकलाम को जाने नहीं देगा 

लेफ्टिनेंट जनरल रिटायर्ड एमसी भंडारी के मुताबिक भारत के साथ हुई राष्ट्र मित्रता संधि के बाद डोकलाम भूटान का हिस्सा है। भारत भूटान को किसी भी सूरत में चीन को नहीं जाने देगा। ऐसा ही कालीनदी भी भारत और नेपाल में बहती है। यहां से चीन की घुसपैठ की कोशिश नाकाम होगी। लीपुलेख तक मैप में रही गलती का फायदा नेपाल और चीन को नहीं उठाने दिया जाएगा।

चीन के प्रोपेगेंडा से ज्यादा कुछ नहीं 

ले जनरल रिटायर्ड ओपी कौशिक के अनुसार यह चीन का प्रोपेगेंडा है। उससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। इस वक्त एक तरह का मीडिया वॉर चल रहा है। आंतरिक मोर्चे पर जूझ रहा चीन इस वक्त कोई बड़ा कदम उठाने की स्थिति में नहीं है। उस पर तिब्बत का भूगोल हमारे हक में है। ऊंचे पहाड़ी क्षेत्र में एक हजार सैनिकों से मोर्चा लेने के लिए 10 हजार सैनिकों की जरूरत होती है।

पूरी तैयारी रखनी होगी 

रिटायर्ड ले जनरल केके खन्ना के अनुसार यह रणनीतिक रूप से दबाव बनाने वाला कदम हो सकता है। लेकिन मैं समझता हूं कि भारत व चीन, दोनों मैच्योर्ड पावर है। ऐसे में संजीदगी से काम लेना चाहिए। बहरहाल अपनी जमीन की हिफाजत करना हमारा फर्ज है और इसे लेकर हर तैयारी पूरी रखनी चाहिए।

कालीनदी पहले से भारत का हिस्सा 

रिटायर्ड ब्रिगेडियर एसएस पटवाल का कहना है कि कालीनदी पहले से भारत का हिस्सा है। कुछ समय पहले नेपाल के साथ सुरक्षा संधि टूटने से चीन इसका फायदा उठाने की फिराक में है। कालीनदी के बॉर्डर पर भारतीय सेना पहले से मजबूत स्थिति में है। चीन यहां से तो दूर, बाड़ाहोती के रास्ते भी कदम नहीं रख सकता है।

तनाव से बेअसर भारत-चीन स्थलीय व्यापार

भारत-चीन के बीच हालिया तनाव के बावजूद उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के रास्ते होने वाले भारत-चीन स्थलीय वस्तु विनियम व्यापार पर कोई फर्क नहीं पड़ा है। व्यापारियों ने अब तक अस्सी लाख रुपये का व्यापार किया है।

जून माह से शुरू  हुआ व्यापार अक्टूबर अंत तक चलेगा। चीन की मंडी तकलाकोट में होने वाले इस व्यापार के लिए इस बार 34 भारतीय व्यापारी और 25 हेल्पर को ट्रेड पास निर्गत किए गए हैं।

भारतीय व्यापारी इस समय तकलाकोट में हैं। बुधवार को ट्रेड अधिकारी आरके पांडे ने अब तक हुए व्यापार के आंकड़े जारी किए। आंकड़ों के मुताबिक अब तक भारतीय व्यापारियों ने 30,50760 रुपये का निर्यात किया है, जबकि आयात 50,46510 रुपये का हुआ है। भारतीय व्यापारी गुड़, मिश्री, तंबाकू, कास्टमेटिक सामग्री, माचिस आदि लेकर चीन गए हैं। व्यापारी चीन से रेडीमेट कपड़े, जूते, कंबल आदि सामग्री लेकर भारत आएंगे। भारतीय व्यापारी अक्टूबर तक चीन में ही रहेंगे।

माओवादी भी जताते थे कालापानी पर हक

चीन के बयान के बाद एकाएक चर्चा में आए कालापानी को कभी नेपाल के माओवादी भी अपना बताते थे। असल में कालापानी नेपाल और चीन सीमा से सटे पिथौरागढ़ जिले की धारचूला तहसील में है। हालांकि नेपाल में यह कभी बड़ा मुद्दा नहीं रहा, लेकिन माओवाद के दौर में चीन ने इस पर उन्हें अपना समर्थन दिया था। रक्षा विशेषज्ञ कालापानी से घुसपैठ की धमकी को इसी इतिहास से जोड़कर देख रहे हैं।

यदि इतिहास में झांककर देंखें तो 1816 में गोरखाओं को पराजित करने के बाद अंग्रेजों की नेपाल से संधि हुई। सिंगोली में हुई संधि में कालापानी के पास सीमा का निर्धारण किया गया। भोगोलिक दृष्टि से देखें तो भारतीय क्षेत्र गुंजी के बाद कालापानी आता है और वहां से भारत-चीन की सीमा को विभाजित करने वाला लिपुलेख दर्रा 12 किलोमीटर दूर है।

कालापानी महाकाली नदी का उद्गम है और यहां भारत व नेपाल की सीमा लगती है। इस सीमा पर नेपाल ने कभी विरोध दर्ज नहीं किया। वह कालापानी को ही अपनी विभाजक सीमा मानता रहा है।

असल में वर्ष 1996 में नेपाल में माओवादी आंदोलन चरम पर होने के बाद कालापानी विवाद उपजा और 1996 के बाद यह सुर्खियों में आया। तब माओवादियों ने कालापानी के अलावा, चम्पावत व बनबसा से लेकर तराई के कई हिस्सों पर अपना दावा जताया था। माओवादियों ने कालापानी के आसपास गुंजी, कुटी व नाबी गांव को अपना बताया था।

तब माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड के वृहत्तर नेपाल के नक्शे में कई भारतीय क्षेत्र शामिल थे। वर्तमान में नेपाल में माओवादी सत्ता पर हैं। जिन्हें चीन का पूरा समर्थन है।

1962 में तैनात हईं थीं छह टुकड़ियां

वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध के समय कालापानी में भी भारतीय सेना की 6 टुकड़ियों की तैनाती की गई थी। युद्ध समाप्त होने के बाद चीन सीमा से सटे संपूर्ण भारतीय इलाके में आइटीबीपी की तैनाती की गई।  इसलिए इस जगह पर सुरक्षा की जिम्मेदारी एसएसबी को दी गई है। इससे सात किलोमीटर आगे नाबीढांग में आइटीबीपी का डेरा है। बीच में सेना की पंजाब रेजीमेंट व कुमाऊं स्कॉट को भी तैनात किया गया है।

  • संपादक कविन्द्र पयाल

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